Friday, September 4, 2009

बाबाजी का जीवनवृत (10 सितम्बर 1926 - 29 सितम्बर 2003)



कान्यकुब्ज शुक्ल बाह्मण परिवार में 10 सितम्बर 1926 को पं0 देवीप्रसाद शुक्ल तथा श्रीमती चंद्राणी देवी को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम रखा गया 'प्रतापचन्द्र शुक्ल'। यह बालक बाल्यकाल में ही कुछ विलक्षण सा था-अन्तर्मुखी, अध्ययनशील। कठिन परिस्थितियों में अपने ही श्रम से स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की। हिन्दी साहित्य तथा दर्शन शास्त्र में एम00 किया। आंग्ल भाषा तथा संस्कृत के अतिरिक्त उन्हें गुजराती भाषा का ज्ञान भी था। तपोव्रती सरल-ह्रदय प्रतापचन्द्र शुक्ल में जन्मान्तरों से अर्जित अध्यात्म का प्रबल संस्कार था। घर में भी नित्य पूजा का विधान मिला। अंतत: सन् 1986 में उन्हें गुरुदेव स्वामी चिन्मयानन्द जी से संन्यास दीक्षा और नाम 'स्वामी शंकरानन्द' मिला।

संत- समागम, शास्त्रों का मननात्मक अध्यन, जप, ध्यानादि, साधनाओं तथा धर्मप्रधान जीवन से वैराग्य की पुष्टि होती गई। 'धर्मतेविरति' उनके जीवन में चरितार्थ हुई। स्वामी शिवानन्द जी के साहित्य तथा ज्ञान शिविर से उन्हें अध्यात्म विद्या के सिद्धान्तों को आचरण में धारण करने की प्रेरणा मिली । इसके अतिरिक्त रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द घोष, जे0 कृष्णामूर्ति आदि के साहित्य से उनके चरण अध्यात्म पथ पर दृढ़ता से स्थित हो गये थे।

जीवन लक्ष्य का निभ्रान्त वरण हो चुका था, वहीं 1967 में उन्हें 'चिन्मय मिशन' का परिचय प्राप्त हुआ। गुरुदेव स्वामी चिन्मयानन्द जी प्रथम बार कानपुर पधारे थे तथा मोती झील प्रांगण में गीता अध्याय 3 और भजगोविन्दम् पर प्रवचन कर रहे थे। सन् 1969 में पुन: उन्होंने गुरुदेव स्वामी चिन्मयानन्द जी को सुना । उनकी समझ में आ गया की जिस अध्यात्म विद्या को वह सीखना और पढ़ना चाह रहे हैं उसी का प्रशिक्षण गुरुदेव दे रहे हैं। ज्ञान यज्ञ के बाद का कार्यकारिणी बनाई गई और श्री गुरु लाल निगम के घर स्वाध्याय - मंडल का प्रारम्भ हुआ। उसके प्रमुख सेवक स्वामी शंकरानन्द जी बनाए गये। उनकी प्रतिभा को प्राकट्य का अवसर मिला, जिसका प्रभाव सुनने वालों के ह्रदय पर पड़ता था। कानपुर में उनकी ख्याति बढ़ने लगी।

स्वाध्याय मंडलों में हिन्दी की पुस्तकों की आवश्यकता होने पर स्वामी शंकरानन्द जी ने "Kindle Life" का अनुवाद करके उसका नाम " जीवन ज्योति '' रखा। इसके बाद गुरुदेव की स्वीकृति से वह पुस्तक " विवेक प्रिन्टर्स '' कानपुर से मुद्रित हुई। मुंबई से सेन्ट्रल चिन्मय मिशन ट्रस्ट की हिन्दी शाखा कानपुर में स्थापित हुई।

उस समय का प्रारम्भ हुआ हिन्दी प्रकाशन का कार्य अब एक वृहद् रुप धारण कर चुका है। उसमें अधिकांश पुस्तकें गुरुदेव की अंग्रेजी पुस्कों का हिन्दी अनुवाद है। कुछ पुस्तकें स्वामी तेजोमयानन्द जी की हैं तथा कुछ स्वामी शंकरानन्द जी की है। " कैवल्य उपनिषद् '' अनुवाद न होकर स्वामी जी अपनी सरल, सुनियोजित, सरस, सुन्दर व्याख्या है। ब्रह्मचारी विवेक चैतन्य जी (स्वामी तेजोमयानन्द जी) की कानपुर कार्याविधि में स्वामी शंकरानन्द जी के लेखन - कार्य में प्रगति हुई। प्रकाशन के लिये क्रमश: श्रीमती निर्मला बाजोरिया, श्रीमती दीपा मोदी तथा श्री राधाकृष्ण अग्रवाल के आर्थिक अनुदान से श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद तथा मुणडकोपनिषद पुस्तकें हिन्दीं प्रकाशन में आई।

स्वामी तेजोमयानन्द जी ने ज्ञान यज्ञों से जनमानस में वेदान्त की अभिरुचि जगा दी थी। एक बार आर्य नगर, कानपुर में ज्ञान यज्ञ के बाद कुछ जिज्ञासुओं ने उनसे पूछा कि गीता के अन्य अध्यायों की व्याख्या हम कैसे जानेंगे। आपके ज्ञान-यज्ञ तो बहुत दिनों बाद होते हैं। इसके उत्तर में स्वामी तेजोमयानन्द जी ने कहा कि आप लोग स्वामी शंकरानन्द जी से सुनिये । वे आपको गीता ही नहीं वरन् अन्य ग्रन्थों तथा उपनिषदों की व्याख्या भी सुनायेंगे।

स्वामी शंकरानन्द जी ने अपने निवास स्थान पर प्रात: 7 से 9 बजे तक सत्संग प्रारम्भ किया। इसमें नगर के कुछ एडवोकेट, आफिसर तथा शिक्षित लोग आने लगे। इस सत्संग में गीता, उपनिषद आदि तथा भगवान शंकराचार्य के ग्रन्थ और पंचदशी की व्याख्या कई वर्षों तक चलीं।

स्वामी शंकरानन्द जी ने 1970 में एक साप्ताहिक समाचार पत्र " सिविक सर्विस न्युज बुलेटन'' निकालना प्रारम्भ किया। इसमें अधिकांश समाचार और लेख धर्म तथा अध्यात्म पर ही होते थे। य़द्यपि इसका संचालन चिन्मय मिशन नहीं करता था तथापि एक प्रकार से यह उसी का पत्र था। इसमें गुरुदेव के पुस्तकों के अनुवाद, ज्ञान-यज्ञों के विज्ञापन और रिपोर्ट आदि ही छपते थे। सन् 1986 में स्वामी तेजोमयानन्द जी की सम्मति से यह समाचार पत्र मासिक पत्रिका " चिन्मय चन्द्रिका '' के रुप में प्रकट हुआ।

28 अक्टूबर सन् 1986 में गुरुदेव ने संन्यास दीक्षा के बाद स्वामी शंकरानन्द जी को कुछ शिक्षा भी दी। " तुम्हारा सम्बन्ध श्रृंगेरी मठ से है। तुम्हारा भिक्षा मत्रं है "भिक्षां देहि" । पाँच घरों से माँगने का विधान है। आजकल एक ही घर से भिक्षा मिल सकती है, किन्तु इसका तात्पर्य यही है कि कहीं किसी वस्तु या व्यक्ति में आसक्ति न हो। किसी अन्य क्षेत्र में भी तुम " नारायण हरि'' कहकर भिक्षा माँग सकते हो।''

इसके बाद गुरुदेव ने एक वेदान्त मंत्र देकर उसे गायत्री मंत्र के स्थान पर जपने के लिए दिया और कहा, " अब तुम्हे यज्ञ आदि कर्मकाण्ड नहीं करना है। स्वयं को अकर्ता समझो । देह, मन, बुद्धि को निष्काम कर्म करने दो। अपने आपको शुद्ध आत्मा जानो और उसी में स्थित रहो। इस प्रकार सदा शान्त और आनन्दमय रहना ही परम गति है।''

दीक्षा के बाद स्वामी शंकरानन्द जी स्वामी तेजोमयानन्द जी से मिले। दूसरे दिन वे कानपुर लौट आये। कानपुर आने पर घर और बाहर के लोग उनसे आश्चर्य के साथ मिले और उनका अभिनंदन किया।

श्री वनखण्डेश्वर मंदिर का स्थान गुरुदेव ने दो वर्ष पहले 1986 में ले लिया था। वहाँ भूमि पूजन होने के बाद भवन निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया था। स्वामी शंकरानन्द जी पूर्व से ही आश्रम का यह कार्य अपने हाथ में लिये थे। उसे वे आगे बढ़ाते गये। अब उनके मुख्य कार्य आश्रम का निर्माण, पुस्तकों और पत्रिका का प्रकाशन तथा अध्ययन और प्रवचन ही था।

1991 में अप्रैल महीने में स्वामी जी मात्र तीन जनों के साथ पितामह सदन, मंधना पहुँच गये। इसके बाद इलाहाबाद से श्री एस0 एस0 अग्रवाल और उनकी पत्नी भी वहाँ आकर रहने लगे। कुछ कर्मचारी भी जुड़ना प्रारम्भ हुये। उन दिनों आश्रम में अर्थ व्यवस्था दुर्बल थी। गुरुदेव ने जितना निर्माण कार्य करवा दिया था उसके बाद मुख्यालय से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल रही थी।

स्वामी तेजोमयानन्द जी के कहने से स्वामी शंकरानन्द जी ने बड़े ज्ञान-यज्ञ करना प्रारम्भ किये। पहला यज्ञ मेरठ में साकेत के शिव मंदिर में आयोजित हुआ। पहले दिन दस पाँच लोग ही दिखाई दिये। धीरे-धीरे संख्या और बढ़ती गई। आध्यात्मिक रहस्य को जानकर सबके संशय मिटने लगे। साधकों के मन में उत्साह हुआ कि यह जीवनोपयोगी ज्ञान अन्य नगरों में भी फैले। अत: उनके प्रयास से रुड़की, मुजफ्फरनगर तथा अनेंक नगरों में स्वामी जी के ज्ञान यज्ञ आयोजित हुये। चिन्मय मिशन ने उन केन्द्रों को गति प्रदान की। इन नये केन्द्रों में स्वामी जी का तपस्वी जीवन व तितिक्षा प्रकट हुई। रेलयात्रा, ठहरने के स्थान, प्रवचन कक्ष बड़े साधारण रहे फिर भी वे पीछे नहीं हटे। अधिक आयु में भी इतना परिश्रम और कष्ट सहन देहासक्ति से मुक्त पुरुष ही कर सकता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ से प्रारम्भ हुये ज्ञान-यज्ञों का सिलसिला रुड़की, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलन्दशहर, अलीगढ़, आगरा और मुरादाबाद तक चलता रहा। उन्होंने गाजियाबाद और देहरादून में भी ज्ञान-यज्ञ किये। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर में केन्द्र खोले । मध्य प्रदेश में रीवा और सतना में कई ज्ञान-यज्ञ किये। बिहार में पटना, गया, रांची तक स्वामी जी पहुँचे। आसाम में गुवाहाटी और गोलाघाट में उनका यज्ञ आयोजित हुये। क्रमश: यज्ञों का कार्यक्रम इतना अधिक बढ़ गया कि लगातार एक दो महिने तक उनका सिलसिला चला करता था। मंधना आश्रम लौटने का समय नहीं मिलता था।

मिर्जापुर में कुछ वर्षों तक ज्ञान यज्ञों के पश्चात श्री मुरलीधर गोयनका की सहायता से यज्ञों ने ध्यान शिविर का रुप ले लिया। नगर के बाहर एक फार्म हाउस में उसका बड़ा सुन्दर आयोजन होता था। चार दिन तक सब लोग मौन रहते थे। नित्य तीन कक्षायें सैद्धान्तिक और तीन कक्षायें प्रयोगात्मक ध्यान की होती थीं। इन शिविरों को बहुत पसंद किया गया। फिर वर्ष के प्रारम्भ में एक शिविर रीवा आश्रम में तथा दूसरा वर्ष के अन्त में हरिद्वार में भी होने लगा।

स्वामी जी वर्ष में एक बार ज्ञान यज्ञ का शिविर भी करते थे। गर्मियों की छुट्टियों में होने वाले इस शिविर में दूर दूर से लोग भाग लेने आते थे। इस प्रकार के शिविर उत्तरकाशी, सिद्धबाड़ी, कोयम्बटूर और पोर्ट ब्लेअर गये । घर से दूर वेदान्त चिन्तन, तीर्थयात्रा, मुक्त जीवन तथा स्वामी जी के साथ रहने का अवसर। यह यज्ञ बड़े लाभकारी सिद्ध हुये।

सन् 1996 में स्वामी जी की दृष्टि में वृद्धजनों के लिए कल्याणकारी योजना आयी। अपने धर्म शास्त्रों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास चार आश्रमों का वर्णन है। इन चारों आश्रमों में मनुष्य के पृथक - पृथक धर्म है। जैसे बाल्यकाल में मुख्यत: धर्म शिक्षा प्राप्त करना, गृहस्थ होने पर निष्काम कर्म करना, वानप्रस्थ में तपस्या तथा संन्यास में प्रपंच त्याग कर परमात्मा में वास करना है। वानप्रस्थ और संन्यास के धर्मों का पालन न करने के कारण लोगों के सामने अनेक शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और सामाजिक समस्यायें आती हैं, जिनके कारण आज हम सभी तृषित हैं। इसके समाधान के लिए स्वामी जी ने एक नया विभाग बनाने का निश्चय किया। इसे प्रारम्भ करने के लिए उन्होंने इलाहाबाद में 4 दिन का एक शिविर लगाया, जिसमें नित्य एक-एक घंटे की पांच कक्षायें लगाईं। इसमें इन्होंने तृतीय अवस्था की सभी समस्याओं को 4 भागों में बाँट दिया और उनके भौतिक समाधान बताकर पांचवी कक्षा में उनके आध्यात्मिक समाधान भी प्रस्तुत किये।

इस शिविर से लोगों की समझ में आ गया कि वृद्धावस्था समाधान शिविर कैसे लगाये जा सकते हैं और उनसे लोगों का क्या लाभ होगा। वृद्धजनों के प्रशिक्षण के लिए एक तीन-स्तरीय पाठ्यक्रम तैयार हुआ-परिचय, प्रारम्भिक और उच्च। उसी समय स्वामी जी ने एक पुस्तक लिख कर तैयार की जरा "विज्ञान प्रवेशिका"

यह योजना सेन्ट्रल चिन्मय वानप्रस्थ संस्थान के नाम से चल रही है। उनकी गवर्निंग काउन्सल के अध्यक्ष स्वामी जी बनाये गये। इसके बाद स्वामी जी ने वृद्धजनों के लिए एक और पुस्तक लिखी "जरावस्था में कैसे जियें "। यह पुस्तक वस्तुत: "साधना पंचकम् " की विस्तृत व्याख्या है जो वृद्धावस्था समाधान शिविरों में पढ़ाई जाती है। डा0 सज्जन सिंह द्वारा लिखित एक पुस्तक "जरावस्था स्वास्थ्य विज्ञान " शारीरिक समस्याओं का समाधान करती है। अब तक वृद्धावस्था समाधान के देश में अनेक शिविर लग चुके है। इसमें डा0 सज्जन सिंह स्वास्थ और मनोविज्ञान की, श्री एस एस अग्रवाल योगासन और श्री आर0 एन0 कपूर समाजशास्त्र की कक्षायें लेते है। स्वामी जी धर्म और अध्यात्म की कक्षा लेकर सभी समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान बताते थे।

इन समस्त कार्यों के साथ स्वामी जी पितामह सदन, कानपुर का क्रमश: विकास करते रहे। ज्ञान-यज्ञों में प्राप्त हुई गुरु दक्षिणा से यह विकास सम्भव हो सका है।

स्वामी शंकरानन्द जी मुख्य रुप से आध्यात्मिक साहित्य के रचयिता थे। वे सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में गद्य, पद्य दोनों लिख सकते थे। लेखन कार्य उनके लिए अनायास था, कहीं काटा छांटी नहीं । इससे उनके सुलझे हुए क्रमबद्ध विचार - प्रवाह का परिचय मिलता था। कविता में भी मात्रा और यति दोष नहीं। वह भी सरल और सादी। अलंकारों का मोह नहीं दिखाई देता। अभी तक उनका कोई काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है और न स्वामी जी ने इसके लिए कोई प्रयास किया।

उनकी पुस्तकों में सबसे महत्वपूर्ण विद्यारण्य स्वामी रचित वेदान्त के विस्तृत ग्रन्थ पंचदशी की व्याख्या है। दूसरा महत्वपूर्ण विद्यारण्य कार्य कैवल्यउपनिषद् की व्याख्या है। तीसरा ग्रन्थ महाभारत में सनतकुमार द्वारा धृतराष्ट्र को वेदान्त शिक्षण की व्याख्या है। इसके अतिरिक्त शंकराचार्य के प्रारम्भिक वेदान्त ग्रन्थ "तत्त्व बोध" की व्याख्या वेदान्त में प्रवेश करने वाले साधकों के लिए बहुत उपयोगी है।

छान्दोग्यपनिषद् के छठे अध्याय से "तत्त्वमसि " की व्याख्या लिखकर स्वामी जी ने इसे सुलभ और सरल बना दिया है। स्वामी जी के व्याख्या ग्रन्थों में रमण महर्षि कृत सद्दर्शन भी है।

इन ग्रन्थों के अतिरिक्त स्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस के अध्येताओं के लिए भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं "मानस के प्रतीक " तथा "मानस गीता सप्तक " । अध्यात्म विद्या के विभिन्न विषयों को लेकर भी स्वामी जी ने पुस्तकें लिखी थीं। इनमें सबसे अधिक प्रचलित "कर्मयोग साधना " है। इस प्रकार स्वामी जी ने भक्ति, ज्ञान, धर्म आदि विभिन्न विषयों पर छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी है।

स्वामी जी के कुछ प्रवचन भी टेप रिकार्ड किये गये थे। टेप आडियो और वीडियो दोनों प्रकार के हैं। कुछ टेप (आडियो) मुंबई मुख्यालय से प्रकाशित हो कर वितरित हो रहे हैं। अन्य टेप भक्तों के पास व्यक्तिगत रुप से संग्रहीत हैं। किसी के माँगने पर उनकी प्रतिलिपि मिल सकती है। सबसे बड़ा कार्य श्रीरामचरितमानस जैसे विशाल ग्रन्थ पर स्वामी जी के टेप बद्ध हैं। तत्त्वबोध, दृगदृश्य विवेक, श्रीमद्भगवद्गीता पर भी उनकी व्याख्या के टेप हैं।

उनका ऊँ का चार्ट एक विलक्षण रचना है जिसके द्वारा वे वेदान्त के सभी सिद्धान्तों और साधना पद्धतियों की व्याख्या कर देते थे।

सीखने के लिए आयु कोई बाधा नहीं है। स्वामी जी ने कुछ वर्ष पूर्व ही कम्प्युटर पर कार्य करना सीखा था। वे "पेजमेकर, माइक्रोसाफ्ट वल्डॅ, एक्सेल, फाक्स प्रो, टैली " इत्यादि पैकेजों पर कार्य कर सकते थे। वे "ई मेल " और "इन्टरनेट " का भी प्रयोग करते थे। इस समय वे अपनी पुस्तकों का इन्टरनेट पर भेजने की व्यवस्था कर रहे थे।

इतने विस्तृत कार्य करने वाले स्वामी शंकरानन्द जी की पूर्ति कैसे सम्भव है। आश्रमवासियों के लिए उनका अभाव और भी अधिक कष्टकारी है। भगवान हम सबको उनके जीवन - चरित्र से प्रेरणा लेने का वरदान दें।

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