Friday, December 26, 2008

स्वाध्याय मण्डल

स्वामी चिन्मयानन्द ने वेदान्त के सिद्धान्तों पर कई पाठय-पुस्तकें लिखी हैं और भगवद्गीता तथा उपनिषदों पर विज्ञान और तकनीकी में रुचि रखने वाले आधुनिक छात्रों के लिए विस्तृत भाष्य लिखे हैं। अपने अनुभव की दूर दृष्टि से उन्होंने अध्ययन का एक कार्यक्रम निर्धारित किया है। यह केवल बौद्धिक ज्ञान अर्जित करने के लिए ही नहीं है वरन् जो लोग उसके अनुसार जीवन जियेंगे वे अधिक कुशल तथा सफल बनेंगे और शान्ति और सुख भी अधिक मात्रा में अनुभव करेंगे। स्वामी जी विश्व का भ्रमण करते हुए किसी एक स्थान पर एक या दो सप्ताह से अधिक नहीं ठहर सकते। अतः उन्होंने स्वाध्याय मण्डलों के हेतु एक अध्ययन कार्यक्रम बना दिया है। स्वामी जी की अनुपस्थिति में साधक उसी के अनुसार अपना अध्ययन चला सकता है। स्वाध्याय मण्डल पुस्तक में इस कार्यक्रम की रुपरेखा है।


Friday, December 5, 2008

प्रवचन

प्रवचन
माण्डुक्य उपनिषद् और माण्डुक्य कारिका - स्वामी शंकरानंद
मणिरत्नमाला , तत्त्वबोध और
पञ्चदशी का संपादन

Wednesday, November 26, 2008

चिन्मय धर्मसेवक कोर्स

पहला हिन्दी माध्यम
चिन्मय धर्मसेवक कोर्स -अहमदाबाद
(छ: सप्ताह का आवासीय कोर्स)

तारीख - 1 मार्च से 9 अप्रैल २००९

http://www.vedantijeevan.com

Friday, November 21, 2008

उपासना

“वेदान्त सार” नामक ग्रन्थ में श्री सदानन्द योगीन्द्र सरस्वती उपासना को समझाते हुये कहते हैं :-
उपासनानि सगुण ब्रह्म विषयमानस व्यापाररूपाणि
शाण्डिल्य विद्यादीनि।।12।।
अर्थात् उपासनायें सगुण ब्रह्म के विषय में मानस व्यापार या चिन्तन है , जैसे शाण्डिल्य विद्या आदि । सगुण ब्रह्म का चिन्तन ही उपासना कहलाता है। पूजा , पाठ , जप , ध्यान आदि उसी के अनेक प्रकार हैं । ये चित्त को एकाग्र करने के सशक्त साधन हैं । माया की उपाधि को धारण करने वाला ब्रह्म सगुण है । उसे ईश्वर भी कहते हैं । वह सर्वज्ञ सर्वशाक्तिमान और अन्तर्यामी है । मन -बुद्धि में उसका स्मरण करना सरल है । वे आगे कहते हैं -
एतेषां नित्यादीनां बुद्विशुद्धिः परं प्रयोजनम्
उपासनानां तु चित्तैकाग्रयम् ...........।।13।।
नित्य आदि कर्मों का परम प्रयोजन बुद्धि को शुद्ध करना है , किन्तु उपासनाओं का प्रयोजन चित्त की एकाग्रता प्राप्त करना है । पहले नित्य , नैमित्तिक और प्रायाशिचत कर्मो के द्वारा चित्त शुद्ध करना चाहिये फिर स्थूल से सूक्ष्म स्तर की उपासनायें करते हुये मन को एकाग्र करना चाहिये । उपासना का फल बताते हुये वे कहते हैं -
नित्यनैमित्तिकयो : उपासनानां त्ववान्तरफलं
पितृलोक सत्यलोक प्राप्ति: ............।।14।।
नित्य व नैमित्तिक कर्म लौकिक हैं । इन कर्मो को करने वाले शरीर छोडकर पितृलोक तक ऊपर जाते हैं । यह भुवर्लोक है । उपासना आध्यात्मिक कर्म है । उसका फल श्रेष्ठ है । उपासना करने वाला पितृलोक पार कर सत्यलोक तक जाता हैं। ग्रन्थ में आगे यम , नियम आदि बताते हुये पाँच नियमों का वर्णन किया गया हैं -
शौचसन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमा: ।।202।।
शरीर आदि की शुद्धता शौच है । प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो उसमें सन्तुष्ट रहना संतोष है । इन्द्रिरय निग्रह व मनो-निग्रह तप है । उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन स्वाध्याय है । और ईश्वर की उपासना ईश्वर प्रणिधान है । उपासना भक्ति प्राप्त करने का साधन है । उपासनायें वैदिक और पौराणिक दो प्रकार की हैं । सूर्योपासना , प्राणोपासना , प्रणवोपासना आदि वैदिक उपासनायें हैं और रामोपासना , कृष्णोपासना , शिवोपासना आदि पौराणिक उपासनायें हैं । इन सभी उपासनाओं में प्रतीक की आवश्यकता होती है । साधन की दृष्टि से उपासना करने के लिये परमात्मा का कोई रूप स्वीकार करना पडता है । उस रूप में वह सगुण ब्रह्म कहलाता है । स्मरण रहे कि यह उपास्य ब्रह्म यद्यपि सगुण है तथापि वह अव्यक्त व निराकार भी है ।
उपासना में परमात्मा का स्मरण मुख्य तत्व है । स्मरण से परमेश्वर का प्रेम बढता है । प्रेम बढने से स्मरण की निरन्तरता बढती जाती है और इसके फलस्वरूप शुद्ध एवं एकाग्र चित्त की प्राप्ति होती है । गीता में भगवान कहते हैं -
तेषां सततं युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।10.10।।
निरन्तर मेरे स्मरण में लगे हुये और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह ज्ञान देता हूँ जिससे वे मुझको प्राप्त कर लेते हैं । भक्तिसाधना की यही पूर्णावस्था है ।

Saturday, November 15, 2008

कर्म -सिद्धान्त

कर्म -सिद्धान्त प्राय: गलती से भाग्य -वाद समझ लिया जाता है । वस्तुत: कर्म - सिद्धान्त और भाग्य वाद में बहुत अन्तर है । यदि हमारा कर्म- सिद्धान्त भाग्य-वाद होता तो रोमन या यूनानी संस्कृतियों की भाँति हिन्दू संस्कृति भी बहुत पहले नष्ट हो गयी होती ।कर्म -सिद्धान्त पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर निर्भर करता है । जीव का अन्त इसी जन्म में नहीं हो जाता वरन् यह जीवन तो उसकी लम्बी यात्रा का एक पडाव मात्र है । हर व्यक्ति अपने प्रकार का है । उसका जीवन अन्य लोगों से भिन्न प्रकार का होता है । यदि यही जीवन प्रथम और अंतिम होता तो सभी लोगों का जीवन सामान्य रुप से एक ही प्रकार का होता । यदि हम यह मान लें कि हम सब परम सत् से अपना भाग्य लेकर यहाँ नीचे आये हैं तो हर व्यक्ति के सुख - दुखों में इतना अन्तर नहीं होना चाहिए । जब हम मनुष्य की विभिन्नताओं का कारण खोजते हैं तो इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि हम सब के साथ पूर्व काल में कुछ "पृथक" कारण रहे हैं जो परिणाम
स्वरुप आज हम लोगों के पृथक " कार्य " के रुप में व्यक्त हो रहे हैं । सभी कार्यों के अपने पृथक कारण होते हैं । हमारे अनेक जन्मों में से यह भी एक जन्म है जिसमें हम जीवन जी रहे हैं ।पूर्व काल में हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं और शायद आगे भी हमें अनेक जन्म प्राप्त होंगे । जन्म से मृत्यु और मृत्यु से जन्म का भँवरजाल चला करता है , किन्तु हमें वह सब नहीं दिखाई देता क्योंकि हमारी दृष्टि बहुत संकुचित है ।

Friday, November 14, 2008

वेदान्त अध्ययन विधि

वेदान्त अध्ययन विधि
वेदान्त विज्ञान है, अत: उसका अध्ययन व्यवस्थित रुप में करना चाहिए। प्रथम पुस्तक 'जीवन-ज्योति' से अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिए। इसे भी जल्दी-जल्दी न पढ़ें। यह कोई उपन्यास या कोई हल्की-फुल्की पुस्तक नहीं है। इन पुस्तकों को पढ़ कर इनके ऊपर स्वयं विचार करना आवश्यक है। इसलिए एक बार में 5 या 10 पृष्ठ ही पढ़े। पुस्तक धीरे-धीरे, विचार करते हुए पढ़ें और उसमें निरुपित सिद्धान्तों की सत्यता पर चिन्तन करें। इस प्रकार पढ़ने से 20-30 मिनट लग सकते हैं। इनके पढ़ने का समय प्रात:काल नाश्ता करने के बाद उपयुक्त होगा। पुस्तक पढ़ने के बाद दिन का कार्य प्रारम्भ करें।

इसके पढ़ने के पर आपके मन में अनेक शंकायें उठेंगी। कुछ सिद्धान्त आपको तर्कहीन एवं अव्यावहारिक लग सकते हैं। उन शंकाओं को आप अपनी नोट बुक में लिख लें। यह नोट-बुक इसी कार्य के लिए अलग रखें। अपनी शंकाओं को स्पष्ट रुप में व्यक्त करें। उन्हें लिखने के बाद आप भूल जायें और पुस्तक को नित्य आगे पढ़ते रहें।

अगले रविवार या किसी छुट्टी के दिन जब खाली समय मिले, उस नोट-बुक को उठाकर अपनी पुरानी शंकाओं को पढें। एक सप्ताह में आपने जितनी शंकायें की, उन पर विचार कर देखें, क्या वे अब भी अनुत्तरित हैं। आपको यह देख कर आश्चर्य होगा, अब बहुत सी शंकायें निवृत्त हो गयी हैं। एक सप्ताह के अध्ययन से आपका ज्ञान बढा है।
फिर भी कुछ प्रश्न ऐसे हो सकते हैं जिनका उत्तर आपको अभी नहीं मिला है। उन्हें अभी मत काटें। सोमवार से अपने अध्ययन का कार्यक्रम पुनः आगे बढायें। नई शंकायें उत्पन्न हों, उन्हें पुनः लिखते जायें। सप्ताह के अन्त में पूर्ववत् उन प्रश्नों पर फिर विचार करें। इस क्रम से अध्ययन करते रहने पर पुस्तक समाप्त होने तक आप देखेंगे कि आफ सभी प्रश्नों का उत्तर मिल गया है। यदि कदाचित् कुछ प्रश्न रह गये हैं तो उनका समाधान अगली पुस्तक में मिल जायेगा।
अध्ययन धीरे-धीरे करो। कोई जल्दी नहीं है। आफ स्वतन्त्र चिन्तन की अत्यधिक आवश्यकता है। किसी सिद्धान्त को बिना विचार किये स्वीकार मत कर लो। उसकी सत्यता पर विचार करो। अपनी समझ में आना बहुत आवश्यक है। तभी वेदान्त विज्ञान में प्रवेश होगा, आप उसका ज्ञान धारण कर सकेंगे।
जीवन-ज्योति पूरी पढ लेने और उसकी पुनरावृत्ति कर लेने के बाद स्वाध्याय पाठ्यक्रम देखें और अगली पुस्तक अध्ययन के लिए हाथ में लें। पुस्तकों को क्रमानुसार ही पढे और थोडा-थोडा करके धीरे-धीरे पढें। कुल पाठ्यक्रम आधा घण्टा नित्य पढ कर दो-तीन वर्ष में पूरा होगा।
प्रयास करें, आप इसे कर सकते हैं, करना भी अवश्य चाहिए।
स्वामी चिन्मयानन्द

पञ्चदशी

पञ्चदशी
विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षत्व साधन चतुष्ट्य कहलाते हैं। इन गुणों से सम्पन्न पुरुष तत्त्वज्ञान का अधिकारी होता है। अत: इन्हीं गुणों को अधिकारी पुरुष का लक्षण भी मानते हैं। नित्य और अनित्य वस्तु की पहचान करने वाली बुध्दि का नाम है विवेक। विषय सुख की अनित्यता समझ कर उनका राग त्याग देना वैराग्य है। शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रध्दा और समाधान ये षट्सम्पत्तियां हैं। अध्यात्म पथ पर इन्हीं के बल पर प्रगति होती है। इसलिए इन्हें आध्यात्मिक सम्पत्ति कहते हैं। कर्म-बंधन और उससे प्राप्त होने वाले जन्म-मृत्यु के दु:खों को हेय समझकर उनसे छुटकारा पाने की प्रबल इच्छा का नाम मुमुक्षा है।
-शेष भाग

प्रवचन

---द्रग्द्रश्य़ विवेक, तत्वबोध और ईशावास्य उपनिषद् पर प्रवचन की एम पी -3 सी डी प्राप्त करें। -एम पी -3 डाउनलोड -
http://www.vedantijeevan.com/mp3download.htm

Thursday, November 13, 2008

"तत्त्वबोध"

"तत्त्वबोध"
- वेदान्त दर्शन का ज्ञान कराने वाली प्रथम पुस्तक है। वेदान्त के सभी साधको को इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य़ करना चाहिए। - कुछ लोग जाग्रत् अवस्था में दिखाई देने वाली या इन्द्रियों से अनुभव में आने वाली वस्तुओं को सत्य समझते हैं। - शेष भाग http://www.vedantijeevan.com/tatwabodh.htm

मणिरत्नमाला

मणिरत्नमाला
संसार में परवशता है। बंधन है। संसारी मनुष्य को विवश होकर दुःख भेगना पड़ता है। इस स्थिति से छुटकारे का नाम मोक्ष है। मुक्त पुरुष के लिए न संसार है और न उससे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख हैं। मुक्ति का सीध सम्बन्ध आत्मज्ञान से है। श्रुतिमत के अनुसार आत्मज्ञान के बिना अन्य किसी प्रकार से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। कोई व्यक्ति समस्त आकाश को मृगचर्म की भांति लपेट कर अपनी बगल में दबा लेने में भले ही समर्थ हो जाये, ऐसा असम्भव कार्य भी कर ले तो भी आत्मज्ञान के बिना मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। --------शेष भाग

Sunday, October 12, 2008

वेदान्त ज्ञान


वेदान्त - दर्शन
(परम पूज्य स्वामी शंकरानन्द)


वेदों के उत्तरार्ध भाग उपनिषद् है। वे वेदान्त कहलाते है। उपनिषद् अनेक है जैसे ईश, कठ, केन आदि। विभिन्न ऋषियों ने इनमे परमतत्व का प्रतिपादन किया है। ऊपरी दृष्टि से इनमें मतभेद दिखाई देता है। उसमें संगति बैठालने के लिए बादरायण ने ब्रह्मसूत्र की रचना की। श्रीमद्भगवद्गीता भी वेदान्त का ग्रन्थ माना जाता है। इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता को वेदान्त का प्रस्थानत्रय कहते हैं। इन ग्रन्थों पर शंकरार्चाय आदि ने भाष्य लिखे है। बाद में इन भाष्यों पर वार्तिक, टीकायें आदि लिखी गई। अनेक आचार्यों ने वेदान्त के स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन पर आज विपुल साहित्य उपलब्ध है।

भाष्यकारों ने वेदान्त का प्रतिपादन अपनी अपनी दृष्टि से किया है। इनमें प्रमुख भाष्यकार शंकराचार्य , रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य है। जीव और ब्रह्म के सम्बंध में उनके दृष्टिकोणों में अन्तर होनें के कारण उनके सम्प्रदाय चल पडे। शंकराचार्य के मतानुसार जीव और ब्रह्म दो नही है। अत: उनका मत अद्वैतवाद कहलाता है। रामानुजाचार्य ब्रह्म में स्वगत भेद स्वीकार ईश्वर, जीव और जगत को उसी का रूप मानते है। वे विशिष्टाद्वैतवादी है। निम्बकाचार्य जीव और ब्रह्म को एक दृष्टि से अभिन्न और एक दृष्टि से भिन्न मानकर अपने मत को द्वैताद्वैत कहते है। मध्वाचार्य इन दोनो की दो स्वतंत्र सत्तायें मानकर द्वेतवाद का प्रतिपादन करते है। वे इसके समर्थन में उपनिषदों से उदाहरण देकर प्रमाण प्रस्तुत करते है। इन आचार्यों में सबसे प्रसिद्ध शंकराचार्य और रामानुजाचार्य है।
शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त

शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म ही एक अद्वितीय सत्ता है। उसमें सजातीय, विजातीय या स्वांगत कोई भेद नही है। जीव अपने वास्तविक रूप में ब्रह्म ही है। जगत् मायामय आभास मात्र है अत: ब्रह्म के अतिरिक्त कहीं कुछ नही है। इस सिद्धान्त में परमतत्व को ब्रह्म कहते है। वह सत् , चित् और आनन्द स्वरूप है। ये उसके स्वरूप लक्षण है। शुद्ध चेतना ही ब्रह्म है। वह अनादि, अनन्त और नित्य होने के कारण सत् है। वह पूर्ण होनें के कारण आनन्दस्वरूप है। सत् और चित् दोनो आनन्द के अंतर्गत आ जाते है। ये तीन नही एक है। सत् , चित् और आनन्द किसी पदार्थ के धर्म या गुण नहीं है। ब्रह्म जगत का कारण भी है। यह उसका तटस्थ लक्षण है। तटस्थ लक्षण वस्तु के आगन्तुक और परिणामी धर्मों का वर्णन करता है। ब्रह्म से ही जगत की उत्पत्ति होती है, उसी में स्थित रहता है और उसी में विलीन हो जाता है। ब्रह्म इस जगत् का उपादान और निमित्त दोनों कारण है।

कार्य - कारण नियम में शंकराचार्य का मत विवर्तवाद कहलाता है। जब किसी द्रव में वास्तविक विकार उत्पन्न होने से किसी कार्य की उत्पत्ति होती है तो उसे परिणामवाद कहते है। यह सांख्य मत है। जब किसी द्रव में विकार का आभास हो किन्तु वस्तुत: न हो तो उससे उत्पन्न कार्य का नियम विवर्तवाद कहलाता है। शंकराचार्य इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते है। इसके अनुसार आदि कारण ब्रह्म में विकार उत्पन्न हुए बिना ही जगत् की रचना होती है, जैसे रस्सी से सर्प उत्पन्न हो। इस प्रकार की रचना भ्रान्ति ही कही जा सकती है। इस भ्रान्ति को शंकराचार्य माया कहते है।

माया ईश्वर की शक्ति है। इस माया की उपाधि के कारण ब्रह्म ही ईश्वर कहलाता है। ईश्वर अपनी अनिवर्चनीय माया से जड़ - चेतन जगत् की रचना करता है। जीव इस जगत् को सत्य समझकर माया से मोहित होते है और भ्रम मे पड़ते है। जीवों का भ्रम हि अविद्या कहलाता है। अविद्या के कारण सत्यस्वरूप ब्रह्म तो अनुभव में नही आता, वरन् उसके स्थान पर मिथ्या जगत् ही सत्य प्रतीत होता है। जीव की यह अविद्या दूर हो सकती है। श्रुति प्रमाण प्राप्त होने पर और उस पर भली भाँति विचार करने से अविद्या नष्ट हो जाती है। अविद्या से मुक्त जीव अपने आपको ब्रह्म ही पाता है। माया की उपाधि से रहित ईश्वर और अविद्या की उपाधि से रहित जीव अपने मूल में ब्रह्म ही है। यही अद्वैतवाद का प्रतिपाद्य विषय है।

माया को प्रकृति भी कहते है। यह त्रिगुणात्मक है। सत्व, रज और तम ये तीनों इसके गुण है। सत्व गुण सौम्य है। उसमें शान्ति प्रसन्नता, ज्ञान और वैराग्य है। रजोगुण घोर है। उसमें तृष्णा, कर्मभोग और दु:ख है। तमोगुण में जड़ता और मूढ़ता है। इन तीनों गुणो के मिश्रण से सूक्ष्म-पंचमहाभूत उत्पन्न होते है। उसके नाम आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी है। इन सबमें तीनों गुण होना स्वाभाविक है। सूक्ष्म पंचभूतों के सत्वांश से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और अन्त:करण उत्पन्न होते है और उनके रजसांश से पाँच कर्मेन्द्रियाँ और प्राण उत्पन्न होते है। उनके तमसांश का पंचीकरण होता है और स्थूल पंचमहाभूत बनते है। इनसे जगत् की रचना होती है और चराचर प्राणियों के शरीर निर्मित होते है। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् मायाकृत है।

ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है। वह जड़ जगत का अधिष्ठान होकर उसे सत्यता प्रदान कर रहा है। प्राणियों में व्याप्त होने से उसकी चेतना सबको जीवन दे रही है। जब कभी प्राणियों को प्रसन्नता प्राप्त होती है तो वह ब्रह्म की ही प्रतिछाया है। जगत् में कहीं सुख नहीं है।

प्राणियों को तीन शरीर प्राप्त हैं - स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर स्थूल पंचभूतों से, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म पंचभूतों से और कारण शरीर तीन गुणों से बना है। कारण और सूक्ष्म शरीर में तादात्म्य रखने वाली आत्मचेतना जीव भाव को प्राप्त होती है। वह जीव जब तक स्थूल शरीर में रहता है, उसमें जीव का जीवन भासित होता है। उस शरीर को छोड़कर जब जीव चला जाता है तो शरीर मृत हो जाता है और पंचभूतों में मिल जाता है। जीव अपने कर्मानुसार एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। अशुभ कर्मों से दु:ख और शुभ कर्मों से सुख प्राप्त होता है। दु:खमय जीवन नरक और सुख की अधिकता ही स्वर्ग है। अहंता ममता, राग द्वेष , ज्ञान अज्ञान, हर्ष विषाद, आदि द्वन्द्वों में पड़ा जीव जनम मरन का कष्ट पाता रहता है। उससे छूटने का उपाय आत्मज्ञान है।

विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुता दृढ़ होने पर शास्त्र और गुरु कृपा से जीव को आत्मज्ञान प्राप्त हो सकता है। ज्ञानी जीव कर्मबंधन से छूटकर शुद्ब चेतन स्वरुप हो जाता है और वह ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्त कर लेता है। यही मुक्ति या ब्रह्मनिर्वाण है। उपनिषदों के "तत्त्वमसि" आदि महावाक्य इसी अवस्था का वर्णन करते है।

शंकराचार्य जीवन की तीन दृष्टियों का उल्लेख करते है - प्रातिभासिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक। आकाश की तल - मलिनता मरुस्थल का जल आदि मिथ्या होने पर भी अज्ञान के कारण सत्य भासित होते है। इसे प्रातिभासिक सत्य कहते हैं। जीव को अज्ञान की अवस्था में जगत् सत्य भासित होता है और उसे परमात्मा का अनुभव नहीं होता। यह व्यावहारिक सत्य है। ज्ञान उदय होने पर जगत् मिथ्या और ब्रह्म सत्य अनुभव में आ जाता है। यह पारमार्थिक सत्य है। इस दृष्टि से सर्वत्र एक ब्रह्म ही है। उसके अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि में ईश्वर, जीव और जगत् तीनों है। ईश्वर जगत् की रचना करता है और जीव के शुभाशुभ कर्मों का फल देता है। जीव ईश्वर के अधीन रहकर शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है और पुनर्जन्म के चक्र में पड़ता है।