Friday, November 21, 2008

उपासना

“वेदान्त सार” नामक ग्रन्थ में श्री सदानन्द योगीन्द्र सरस्वती उपासना को समझाते हुये कहते हैं :-
उपासनानि सगुण ब्रह्म विषयमानस व्यापाररूपाणि
शाण्डिल्य विद्यादीनि।।12।।
अर्थात् उपासनायें सगुण ब्रह्म के विषय में मानस व्यापार या चिन्तन है , जैसे शाण्डिल्य विद्या आदि । सगुण ब्रह्म का चिन्तन ही उपासना कहलाता है। पूजा , पाठ , जप , ध्यान आदि उसी के अनेक प्रकार हैं । ये चित्त को एकाग्र करने के सशक्त साधन हैं । माया की उपाधि को धारण करने वाला ब्रह्म सगुण है । उसे ईश्वर भी कहते हैं । वह सर्वज्ञ सर्वशाक्तिमान और अन्तर्यामी है । मन -बुद्धि में उसका स्मरण करना सरल है । वे आगे कहते हैं -
एतेषां नित्यादीनां बुद्विशुद्धिः परं प्रयोजनम्
उपासनानां तु चित्तैकाग्रयम् ...........।।13।।
नित्य आदि कर्मों का परम प्रयोजन बुद्धि को शुद्ध करना है , किन्तु उपासनाओं का प्रयोजन चित्त की एकाग्रता प्राप्त करना है । पहले नित्य , नैमित्तिक और प्रायाशिचत कर्मो के द्वारा चित्त शुद्ध करना चाहिये फिर स्थूल से सूक्ष्म स्तर की उपासनायें करते हुये मन को एकाग्र करना चाहिये । उपासना का फल बताते हुये वे कहते हैं -
नित्यनैमित्तिकयो : उपासनानां त्ववान्तरफलं
पितृलोक सत्यलोक प्राप्ति: ............।।14।।
नित्य व नैमित्तिक कर्म लौकिक हैं । इन कर्मो को करने वाले शरीर छोडकर पितृलोक तक ऊपर जाते हैं । यह भुवर्लोक है । उपासना आध्यात्मिक कर्म है । उसका फल श्रेष्ठ है । उपासना करने वाला पितृलोक पार कर सत्यलोक तक जाता हैं। ग्रन्थ में आगे यम , नियम आदि बताते हुये पाँच नियमों का वर्णन किया गया हैं -
शौचसन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमा: ।।202।।
शरीर आदि की शुद्धता शौच है । प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो उसमें सन्तुष्ट रहना संतोष है । इन्द्रिरय निग्रह व मनो-निग्रह तप है । उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन स्वाध्याय है । और ईश्वर की उपासना ईश्वर प्रणिधान है । उपासना भक्ति प्राप्त करने का साधन है । उपासनायें वैदिक और पौराणिक दो प्रकार की हैं । सूर्योपासना , प्राणोपासना , प्रणवोपासना आदि वैदिक उपासनायें हैं और रामोपासना , कृष्णोपासना , शिवोपासना आदि पौराणिक उपासनायें हैं । इन सभी उपासनाओं में प्रतीक की आवश्यकता होती है । साधन की दृष्टि से उपासना करने के लिये परमात्मा का कोई रूप स्वीकार करना पडता है । उस रूप में वह सगुण ब्रह्म कहलाता है । स्मरण रहे कि यह उपास्य ब्रह्म यद्यपि सगुण है तथापि वह अव्यक्त व निराकार भी है ।
उपासना में परमात्मा का स्मरण मुख्य तत्व है । स्मरण से परमेश्वर का प्रेम बढता है । प्रेम बढने से स्मरण की निरन्तरता बढती जाती है और इसके फलस्वरूप शुद्ध एवं एकाग्र चित्त की प्राप्ति होती है । गीता में भगवान कहते हैं -
तेषां सततं युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।10.10।।
निरन्तर मेरे स्मरण में लगे हुये और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह ज्ञान देता हूँ जिससे वे मुझको प्राप्त कर लेते हैं । भक्तिसाधना की यही पूर्णावस्था है ।

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