Saturday, November 15, 2008

कर्म -सिद्धान्त

कर्म -सिद्धान्त प्राय: गलती से भाग्य -वाद समझ लिया जाता है । वस्तुत: कर्म - सिद्धान्त और भाग्य वाद में बहुत अन्तर है । यदि हमारा कर्म- सिद्धान्त भाग्य-वाद होता तो रोमन या यूनानी संस्कृतियों की भाँति हिन्दू संस्कृति भी बहुत पहले नष्ट हो गयी होती ।कर्म -सिद्धान्त पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर निर्भर करता है । जीव का अन्त इसी जन्म में नहीं हो जाता वरन् यह जीवन तो उसकी लम्बी यात्रा का एक पडाव मात्र है । हर व्यक्ति अपने प्रकार का है । उसका जीवन अन्य लोगों से भिन्न प्रकार का होता है । यदि यही जीवन प्रथम और अंतिम होता तो सभी लोगों का जीवन सामान्य रुप से एक ही प्रकार का होता । यदि हम यह मान लें कि हम सब परम सत् से अपना भाग्य लेकर यहाँ नीचे आये हैं तो हर व्यक्ति के सुख - दुखों में इतना अन्तर नहीं होना चाहिए । जब हम मनुष्य की विभिन्नताओं का कारण खोजते हैं तो इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि हम सब के साथ पूर्व काल में कुछ "पृथक" कारण रहे हैं जो परिणाम
स्वरुप आज हम लोगों के पृथक " कार्य " के रुप में व्यक्त हो रहे हैं । सभी कार्यों के अपने पृथक कारण होते हैं । हमारे अनेक जन्मों में से यह भी एक जन्म है जिसमें हम जीवन जी रहे हैं ।पूर्व काल में हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं और शायद आगे भी हमें अनेक जन्म प्राप्त होंगे । जन्म से मृत्यु और मृत्यु से जन्म का भँवरजाल चला करता है , किन्तु हमें वह सब नहीं दिखाई देता क्योंकि हमारी दृष्टि बहुत संकुचित है ।

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